Tuesday, March 3, 2020

औपनिवेशिक मानस से बाहर निकलने का समय


2018 अक्टूबर में, मैं नेशनल लिबरल क्लब, लंदन में ग्लोबल स्ट्रेटेजी फोरम की एक साप्ताहिक वार्ता में भाग ले रहा था। हाउस ऑफ लॉर्ड्स के ब्रिटिश सदस्य माइकल एंकरम वर्षों इसका आयोजन कर रहे हैं और नियमित रूप से मुझे आमंत्रित करते रहे हैं, इस तथ्य के बावजूद कि मैं ब्रिटेन में हूं या नहीं। उस सप्ताह इस वार्ता के मुख्य वक्ता पोलैंड के पूर्व रक्षा और  विदेश मंत्री श्री राडोसलाव सिकोरस्की थे। सर मालकॉम रिफ़किंड , जो खुद ब्रिटेन के पूर्व विदेश और गृह सचिव रह चुके थे, इस विशेष सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे और मैं पिछले कुछ हफ्तों से उनके संपर्क में था। बात शुरू होने से पहले उन्होंने मुझे आने वाले स्पीकर से मिलवाया। हम तीनों ने कुछ शब्दों का आदान-प्रदान किया और भारत और दक्षिण एशिया पर एक अच्छा सा चैट किया।

सिकोरस्की ने अपनी बात में बताया कि एक बार एक बड़ी सभ्यता जब युद्ध में मात खा जाती है तो उसका पूरा राष्ट्रीय मानस बदल जाता है। वह यूरोपीय संघ के नियमों की अवहेलना  करने के लिए औसत ब्रिटिशर या यहां तक ​​कि बड़ी संख्या में ब्रिटिश अभिजात्य  वर्ग के संदर्भ में बोल रहे थे और बोनापार्ट के बाद वाले फ्रांस के शांतिवादी दृष्टिकोण पर कटाक्ष कर रहे थे जो कि पूरे यूरोपीय संघ को चलाने का दिखावा करता था, लेकिन वास्तव में अपने राष्ट्रीय मानस के चोट को छुपाने का प्रयास कर रहा था। 

घटना का उनका वर्णन बहुत दिलचस्प था जिसे मैं  आज तक सोचता हूँ । कभी कभी विचार आता है की  बाहरी और औपनिवेशिक शासकों के  लगभग एक  हजार वर्ष के लूट पात से  हमारे व्यवहार में क्या परिवर्तन आया होगा ।

मैं अक्सर अपने छोटे दक्षिण एशियाई राज्यों से मित्रों  से सुनता आया हूं कि भारत में हममें से ज्यादातर लोग या तो बहुत घमंडी हैं या अति भीरू हैँ।   यह इस पर निर्भर करता है जिन से हम बात करते हैं वह कितने प्रभावशाली है ।  उनकी धारणा में, हम या तो धमकाने  या डरने वाली भाषा का उपयोग करते  हैं और ईमानदारी के साथ स्पष्ट रूप से एक दुसरे का सम्मान करते हुए बातचीत करने से कतराते हैं। 

मुझे याद है कि कुछ साल पहले एक अनौपचारिक सामाजिक घटना में, एक भारतीय मूल के अरबपति ने सरकारी नीतियों की या ये कहें की भारतीय राजनेताओं की घोर निंदा कर रहे थे । सारे लोग आनंद ले रहे थे. यकायक एक वरिष्ठ केंद्रीय कैबिनेट मंत्री वहां पहुँच गए।  उद्योगपति महोदय ने  तुरंत अपने शब्दों को चीनी और शहद के रंग में ढाल कर ताना बाना बुना की माहौल बदल गया।  वे  उसी सरकार की प्रशंसा करते हुए बाकी लोगों के मनोरंजन के पात्र भी बन गए । लेकिन जबरदस्त खाल पहने हुए थे जिस पर ऐसी बातों का कोई असर  नहीं होना था. मैं अपने तथाकथित कॉरपोरेट नेताओं के ऐसे मानसकि सतहीपन पर न हंसने के लिए संघर्ष करता हूं।

ऐसी मानसिकता भारत तक ही सीमित नहीं है। उपनिवेशवाद की विरासत ने उपनिवेशवाद से ग्रसित  दुनिया के अधिकांश हिस्सों में लोगों की सोच को लचीला बना दिया है, ख़ास कर उन देशों में जहाँ न्याय और कानून व्यवस्था कमजोर  और नरम है। ऐसे देशों में शासन व्यवस्थाएं या प्रजातान्त्रिक शासक भी कुछ हद तक दमनकारी और निरंकुश हैं। सत्ता की पूजा समृद्धि का एक महत्वपूर्ण घटक रहा है जिसे अक्सर क्रोनी पूंजीवाद के रूप में वर्णित किया गया है।

अधिकांश औपनिवेशिक ताक़तों ने समाजों में शासन के प्राथमिक उपकरण के रूप में भय और धमकी का इस्तेमाल किया था। इसने स्थानीय राष्ट्र की लूट पाट  में मदद मिली।  कठोर शक्ति से 
समाजों से  किसी भी प्रतिरोध को शांत करा दिया जाता था ।

विडंबना यह है कि ज्यादातर पोस्ट औपनिवेशिक समाज ने औपनिवेशिक अधीनता की ऐसी विकृत और विकृत विरासत को खत्म करने के लिए पुरजोर संघर्ष  नहीं किया है। इसने पूरे समाज के व्यावहारिक मानदंडों को इस हद तक बदल दिया है कि सत्ता के शासक अपने आप को ईश्वरीय शक्तियों का अवतार या सुपर  ह्यूमन से कमतर नहीं समझते हैं।  बड़ी संख्या में उनके अनुयायी इस तरह की आत्म-धारणा को मजबूत करने के लिए उनके आसपास आ जाते हैं। इसी मानसिता की वजह से व्यवसाय और राजनीति दोनों में नेतृत्व की भूमिकाओं के लिए वंशवादी उत्तराधिकार की परंपरा बन गयी है। 

लेकिन क्या इस तरह का डर, डराना, चाटुकारिता या यहां तक ​​कि विरोधियों का अपमान हमें एक बेहतर समाज या व्यक्ति या राष्ट्र बना सकता है? क्या यह समाज या संस्थान या एक परिवार में भी समरसता को नष्ट नहीं करेगा? 

लोकतंत्र, विचारों के प्रबुद्ध और विनम्र आदान प्रदान से सशक्त होता है।  क्या हमारे पास कभी सही नेता, मार्ग दर्शक  और रोल मॉडल हो सकते हैं जो न केवल ऐसी बातें उपदेश में कहें बल्कि इसे अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में बनाए रखने की कोशिश कर के हमें प्रेरित करें? 

एक समाज, राज्य और सभ्यता की ताकत लोगों के परस्पर  विश्वास, सद्भाव और आपसी सहयोग और प्रतिस्पर्धा की एक बड़ी संस्कृति पर निर्भर करता है। संघर्ष कुछ हद तक अपरिहार्य है, लेकिन वही समाज और सभ्यताएं सशक्त होती हैं जो लोगों के बीच सहयोग और सद्भावना की उच्च गुणवत्ता को बढ़ावा देकर ऐसे संघर्षों को बेहतर तरीके से रोकती हैं।  भय, धोखा  और अपराधी तरीकों से  कुछ लोगों को चुप  कराया जा  सकता  है लेकिन मजबूत समाज या राज्य की नींव कभी नहीं डाला जा  सकता ।
उम्मीद करता हूँ की मानव शरीर में जो ईश्वरीय अवतार हमारे समाज में विचरण कर रहे हैं वो कुछ समय के लिए भारतीय की तरह सोचने का प्रयास करेंगे।  भारत जयकारा से नहीं बल्कि एक सुदृढ़ समाज और चुस्त प्रशासन और न्याय व्यवस्था से मजबूत होगा।  

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